11/01/2025
जब तक कैलेंडर का निर्माण नहीं हुआ था, सब सही था। लेकिन जैसे ही कैलेंडर बना अब ईश्वर दिन विशेष पर लोगों के बाल काटने, धोने, नाखून काटने, कपड़े धोने, साबुन लगाने से नाराज़ होने लगे। जैसे ईश्वर के नाम पर इतना मज़ाक कम था तो ईश्वर ने या स्पष्ट कहें तो ईश्वर के नाम पर अपना वर्चस्व स्थापित करने वालों ने इन कामों के लिए भी अपनी सहूलियत के हिसाब से इसमें भी लिंग व वैवाहिक स्थिति के आधार पर ईश्वर के क्रोध का स्कोर कार्ड बनाया। जैसे कि मंगलवार के दिन किसी पुरुष के बाल धोने पर ईश्वर नाराज़ नहीं होते लेकिन जैसे ही आसमान में बैठकर लोगों के कर्म की बजाय बाथरूम में झाँकने वाले ईश्वर देखते हैं कि मंगलवार के दिन कोई स्त्री बाल धो रही है भड़क जाते हैं। यदि स्त्री अविवाहित है तब भी ईश्वर थोड़ी राहत देते हैं लेकिन यदि ईश्वर देखते हैं कि स्त्री विवाहित है और मंगलवार के दिन बाल धो रही है फ़िर तो उनके क्रोध की कोई सीमा ही नहीं रहती। अब आप सोच रहे होंगे कि ईश्वर को पता कैसे चलता है कि स्त्री विवाहित या अविवाहित है? तो भाई हमारे यहाँ निजी संपत्तियों क्षमा चाहूँगी स्त्रियों को दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे से इतनी निशानियाँ तो लगा ही दी जाती हैं ईश्वर या धरती पर किसी के हो चुके या होने वाले परमेश्वर को स्त्री की वैवाहिक स्थिति का अंदाज़ा लगाने में कोई समस्या ना हो।
कभी-कभी हैरानी होती है कि भारतीय उपमहाद्वीप की हिंदू आबादी के इतर जो पुरुष जनसंख्या है वो भला जीवित कैसे रहती है? उनकी स्त्रियाँ तो विवाहित होने के इतने निशान लिए नहीं घूमती ना ही उनकी जीवन रक्षा के लिए तीज, करवाचौथ जैसे निर्जला व्रत आदि ही करती हैं। फ़िर याद आता है कि भारतीय उपमहाद्वीप के इतर सती प्रथा भी तो नहीं थी।
सोचती हूँ लोगों के नहाने, साबून लगाने, शेव करने, कपड़े धोने पर इतनी कड़ी नज़र रखने वाला ईश्वर अगर अन्याय पर भी इतनी कड़ी नज़र रखता तो क्या ही अच्छा होता। या शायद गुरुवार को कपड़े धोने से डरने वाले पाप करने से भी इतना ही परहेज़ करते तो समाज का स्वरूप कैसा होता?
- नेहा मिश्रा "प्रियम"
11/01/2025
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